Tuesday, January 07, 2014

श्वान–सम्मेलन

—डॉ0 जगदीश व्योम 
पीलू सुबह से शाम तक बस्ती–बस्ती में घुम रहा था।जो भी जाति–भाई मिलता उससे वह सम्मेलन में आने का अनुरोध करता और आगे बढ़ जाता। पूरे उत्साह से लगा था पीलू सम्मेलन के आयोजन में। वह चाहता था कि उसके संयोजन में आयोजित यह सम्मेलन इतना सफल हो कि वर्षों तक इसे याद किया जाए। इसीलिए भूख–प्यास की चिंता किए बिना पीलू जुटा हुआ था। पूरी बस्ती के कुत्ते उसे पहचानते थे और उसका आदर करते थे। पीलू को देखकर बस्ती के कुत्ते उसके पास आ जाते‚ उसकी बात सुनते। घरों में बंद रहने वाले एक–दो बबुआ‚ कनकटे और पुँछकटे उस पर गुर्राते परन्तु पीलू का डील–डौल और उसकी ऊपर उठी पूँछ को देखकर चुपचाप सहम कर भाग जाते।
पीलू को इन कनकटे और पुँछकटे कुत्तों को देखकर‚ इन पर दया भी आती और क्रोध भी आता। आदमियों के तलुवे चाट–चाटकर इन कुत्तों ने अपनी संस्कृति ही छोड़ दी। ये वर्णशंकर हो गए। कान कटवा डाले‚ पूँछ कटवा डाली फिर भी खुश हैं। इन्हीं सब बातों को वह सम्मेलन में रखेगा। कुत्तों की संस्कृति और सभ्यता पर हमला हो रहा है‚ फिर वह चुप कैसे बैठे? पीलू यहीं चिंतन करता रहता।
लंबा–चौड़ा शरीर‚ हमेशा ऊपर उठी रहने वाली गोल छल्ले की तरह मुड़ी सुंदर और आकर्षक पूँछ‚ चौड़ा मुँह‚ पीला रंग‚ पीले रंग के बीच–बीच में सफेद फूल जैसे नन्हे–नन्हे धब्बे पीलू के व्यक्तित्व को बेहद आकर्षक बनाए हुए थे। बस्ती–भर की कुतियाँ उसकी एक झलक पाने को लालायित रहतीं। पीलू पूरी बस्ती का ध्यान रखता। यही कारण था कि उसके द्वारा आयोजित ‘कुत्ता–संस्कृति’ के गिरते स्तर पर आयोजित ‘श्वान–सम्मेलन’ में भारी भीड़ एकत्र होने की पूरी संभावना थी।
आखिर श्वान–सम्मेलन की तिथि आ ही गई। सुबह से ही तैयारियाँ चल रही थीं। दूर–दूर से देशी और खानदानी कुत्ते एकत्र हो रहे थे। बहुत समय के बाद इतना बड़ा कुत्तों का सम्मेलन आयोजित हो रहा था। चारों तरफ पीलू की प्रशंसा हो रही थी। पीलू सबकी आव-भगत कर रहा था। पीलू ने सम्मेलन में कुछ बाहर के देशी और विद्वान् कुत्तों को भी आमंत्रित किया था। उनका विशेष भाषण सम्मेलन में होना था।
सम्मेलन आरंभ हुआ। सबसे पहले पीलू ने मंच पर आकर पंचम स्वर में अपनी मातृभूमि को प्रणाम किया। इसके बाद समस्त आगंतुक श्वान बंधुओं का अभिवादन करते हुए उसने सबसे स्थान ग्रहण करने का अनुरोध किया। मंच पर बैठे विद्वान् श्वानों का परिचय कराते हुए पीलू ने कहा—“ये ‘हनी’ हैं। ये श्वान–संस्कृति के विशेषज्ञ हैं। ये दूसरे बंधु पिनपिनी हैं। इन्होंने श्वानों के वर्णशंकर होने के कारणों का गहराई से अध्ययन किया है। मैं इन सबका अभिनंदन करता हूँ, स्वागत करता हूँ।
“आज का सम्मेलन अब प्रारंभ होने जा रहा है। हमारे श्वान-समाज का अस्तित्व खतरे में है। आधुनिकता की चकाचौंध में आदमी इतना लिप्त हो गया है कि वह अपने देश से‚ अपने देश की वस्तुओं से‚ अपनी संस्कृति से‚ अपनी सभ्यता से दूर हटता जा रहा है। दूर ही नहीं बल्कि इनसे उसे घृणा हो गई है। हमें इससे मतलब नहीं है, वह जो चाहे करे‚ यह उसका अपना मामला है। परन्तु मनुष्य हमारे देशीपन से‚ हमारी संस्कृति और सभ्यता से भी चिढ़ने लगा है। हमारी संस्कृति और सभ्यता पर हमला हो रहा है, जो अपनी संस्कृति और सभ्यता को अपना रहा है‚ उससे आदमी घृणा कर रहा है। और जो वर्णशंकर हो जाए‚ चरित्र भ्रष्ट हो जाए‚ अपना रूप–स्वरूप बिगाड़ ले‚ उसे आदमी द्वारा अपनाया जा रहा है। इससे तो आगे चलकर हमारा वंश ही नष्ट–भ्रष्ट हो जाएगा। इन्हीं बिंदुओं पर विचार करने के उद्देश्य से यह श्वान–सम्मेलन आयोजित किया गया है। विद्वान् वक्ता इन बिंदुओं पर विचार करेंगे। सबसे पहले मैं ‘श्वान–संस्कृति’ के विशेषज्ञ ‘हनी’ को आमंत्रित कर रहा हूँ।”
हनी धीरे–धीरे मस्त चाल से चलते हुए मंच पर आए। ऊपर मुँह करके उन्होंने लंबी तान–सी छेड़ी मानो श्वान–संस्कृति के इष्टदेव का स्मरण कर रहे हों। इसके बाद समस्त देशी और खानदानी श्वानों को संबोधित करते हुए बोले—“साथियों ! हमारी संस्कृति उतनी ही प्रचीन है जितनी मानव संस्कृति। और एक माने में तो मानव–संस्कृति से हमारी संस्कृति अधिक पुरानी है। हमारे पूर्वजों ने जो सिद्धांत बना रखे थे‚ हम अपने सजातीय भाइयों पर भी भौंकते हैं। यह हमारा विद्रोही स्वरूप नहीं है‚ बल्कि हम नमकहलाली करते हैं। जिसका नमक खाते हैं‚ उसका हमेशा साथ देते हैं। महाभारत–काल में धर्मराज युधिष्ठर के साथ स्वर्ग जाने वाला हमारा ही पूर्वज था। रामायण काल में कुत्ते की शिकायत पर मनुष्य को सजा तक दी जाती थी। ऐसे भव्य उदाहरणों से युक्त है हमारी श्वान–संस्कृति।
“आज हमारी श्वान–संस्कृति पर खतरा मँडरा रहा है। कवि लोग भी अब हम पर उँगलियाँ उठाने लगे हैं—
‘श्वानों को मिलता दूध–वस्त्र
भूखे बच्चे अकुलाते हैं।’
कितनी बड़ी गाली दी है मनुष्य ने हमारी श्वान–संस्कृति को कब छीना है हमने बच्चों का हक? हम तो ऐसा सोच भी नहीं सकते..... लेकिन मनुष्य ने गलत भी नहीं कहा है। वे तथाकथित कुत्ते‚ जो हमारी कुत्ता जाति के लिए कलंक हैं‚ उन्होंने हमारी संस्कृति पर यह धब्बा लगवाया है।
“बहुत पहले हमारे समुदाय की कुछ कुतियाँ आधुनिकता की चकाचौंध में आकर श्वान समुदाय से विद्रोह करके भाग गई थीं। उन्होंने विभिन्न जानवरों के साथ संसर्ग करके वर्णशंकर बच्चे जन्मे। आज वे ही और उनके बच्चे मनुष्य के घरों में रहते हैं। मनुष्य ने चरित्र भ्रष्ट हो जाने पर उन्हे पुरस्कार दिया और आज वे कारों में घूमते हैं‚ दूध–मलाई खाते हैं‚ शैंपू से नहाते हैं। इन्हीं के कारण हम मनुष्यों से दूर होते जा रहे हैं। हमारी संस्कृति पर खतरा मँडराने लगा है। हमारी श्वान–संस्कृति पर खतरा इन्हीं वर्णशंकर श्वानों के कारण आया है। इस दिशा में गंभीर चिंतन की आवश्यकता है।
मेरा भाषण लंबा हो गया है। अब मैं अपना स्थान ग्रहण करता हूँ।”
पीलू मंच पर आया और उसने पिनपिनीजी को भाषण देने के लिए मंच पर आमंत्रित किया।
“मित्रो‚ मेरा नाम पिनपिनी है। मैंने श्वानों के वर्णशंकर होने की प्रक्रिया का अध्धयन किया है। कुछ चीजें तो आप जानते ही हैं। श्वानों के वर्णशंकर होने के पीछे क्या कारण रहे हैं और यह कितना घृणित कार्य है‚ वर्णशंकर होना। इस विषय में संक्षेप में कुछ बातें करूँगा।
“हमारी पूर्व–पीढ़ी की कुछ श्वान मादायें आदमी के बहकावे और लालच में आ गईं। श्वान–कुल की मर्यादा और परंपरा को उन कुतियों ने तिलांजलि दे दी। आदमी की संगति का ऐसा प्रभाव उन पर पड़ा कि वे आधुनिकता में आदमी से भी चार कदम आगे निकल गईं। आदमी ने उनकी पीठ थपथपा दी। फिर क्या‚ पथभ्रष्टता की हर एक सीमा उन कुतियों ने तोड़ डाली। व्यभिचार का ऐसा विद्रूप कि आदमी ने भी उनके कृत्यों को देखकर नाक–भौं सिकोड़ी होगी...... भेड़ियों‚ सियारों‚ भालुओं.... एवं अन्य ऐसे जानवरों से उन कुतियों ने संसर्ग किया और ऐसी औलाद पैदा की जो न भेड़िया थे न श्वान। विचित्र रूप था इनका। आदमी ने जब यह नस्ल देखी तो उसे भा गई और फिर तो ...... आदमी ने जबरन ऐसे घृणित कार्य श्वान मादाओं से कराने प्रारम्भ कर दिये।”
“आदमी की यदि ऐसी मानसिकता है‚ तो फिर उसने अपने समुदाय पर ऐसे प्रयोग क्यों किए?” श्रोताओं की भीड़ में से एक श्वान ने प्रश्न किया।
प्रत्येक आदमी की ऐसी मानसिकता नहीं है। ऐसे तो कुछ ही आदमी हैं जिनका मानसिकता सबसे अलग प्रकार होती है। ऐसे घृणित प्रयोग आदमी ने भी किए हैं। मैंने जानबूझकर इसे छोड़ दिया था। क्योंकि मुझे तो कहने में भी लाज लगती है। फिर भी‚ आपने प्रश्न किया है तो समाधान देना ही पड़ेगा ....... मनुष्य जाति में भी उनके दिमाग में कुछ पथभ्रष्ट महिलाएँ‚ जो अति आधुनिक बनना चाहती हैं‚ या उनके दिमाग में कुछ पागलपन का भूत सवार हो जाता है‚ ऐसे ही घृणित कार्य कर डालती हैं...... अभी हाल में एक समाचार सुर्खियों में रहा है कि “लास एंजिलस(कैलिफोर्नियाह) की उन्तीस वर्षीय कुमारी किटी मार्टिन ने 1987 में एक चिंपैजी से शारीरिक संबंध स्थापित किया और 28 अप्रैल 1988 को ऐसे बच्चे को जन्म दिया जो न आदमी है और न चिंपैजी। कुमारी किटी मार्टिन बड़े गर्व से उस वर्णशंकर बच्चे को पाल रही हैं।” [ खनन भारती पत्रिका‚ अप्रैल 1966 अंक‚ पृष्ट44] श्रोताओं की भीड़ में बैठी श्वान मादाएँ ..... हाय राम !.... च्च ... च्च.....च्च ...... च्च...... च्च ....... कहती हुई लाज के मारे अपने–अपने चेहरों को पंजों से ढँकने लगीं। पूरी सभा आश्चर्य से पिनपिनी साहब की ओर ताकने लगी।
“साथियो! मेरी बात सुनकर तुम्हें आश्चर्य हो रहा होगा। पर यह सच्ची घटना है। और भी ऐसी–ऐसी भयंकर घटनाएँ हैं जिन्हें तो यहाँ कहा ही नहीं जा सकता।
“हाँ ! तो वर्णशंकर श्वान सुतों की बात कर रहा था। इन विकृत चेहरे और शरीर वाले श्वानों को आदमी अब देशी वस्तुओं की उपेक्षा करता चला जा रहा है। उसे तो विकृत विचार‚ विकृत स्वरूप‚ विकृत संस्कार और विकृत संस्कृति अधिक पसंद आ रही है। इसलिए हम देशी श्वानों को बहुत सतर्क रहने की आवश्यता है। आदमी हमारी घोर उपेक्षा कर सकता है तो फिर हम देशी श्वान किस खेत की मूली है ! अंत में आप सब श्वान नरों और मादाओं से मैं कहना चाहता हूँ कि आप अति आधुनिकता की चकाचौंध में न फँसे। अपनी संस्कृति को बनाए रखें।  उन कनकटे‚ पुँछकटे‚ टेढ़ पैरों वाले‚ टेढ़े मुँह वाले वर्णशंकर श्वानों को आदमी के तलुवे चाटने दें। ऐसे चरित्रहीन हमारी श्वान–संस्कृति के आदर्श कभी नहीं हो सकते। अब मैं अपना भाषण समाप्त कर रहा हूँ। एक बार सभी जोर से बोलें—‘श्वान–संस्कृति ज़िंदाबाद!’” सभी श्वानों ने पंचम स्वर में आलाप किया।
पीलू मंच पर आया—“भाइयो ! श्वान–सम्मेलन में आपने विद्वान् वक्ताओं के भाषण सुने। कुछ बातें तो नितांत आश्चर्यजनक सुनने को मिलीं। आदमी जब अपने चरित्र और संस्कृति को विद्रूप कर रहा है‚ तो फिर हम श्वान नर और मादाएँ भ्रष्ट हुईं हैं‚ इसी तरह आदमी जाति में भी कुछ ही ऐसी मानसिकता वाले हैं‚ इनसे बचकर रहें। ऐसे आदमी‚ आदमी रह नहीं पाए हैं और जानवर बन नहीं सकते। इनकी दशा पर हम श्वानों को भी दया ही आती है। इन्हें अपने हाल पर छोड़ दें।
“श्वान–सम्मेलन में आप सबने भाग लिया‚ इसके लिए आप सबको धन्यवाद। अगर इसकी रिपोर्ट छपी या फेसबुक पर प्काशित हुई तो आदमी चौंकेगा भी‚ बौखलाएगा भी‚ प्रसन्न भी होगा और हँसेगा भी। सब अपनी मानसिकता के अनुरूप इसका लक्ष्यार्थ‚ व्यंग्यार्थ और अभिधेयार्थ खोज ही लेंगे।”
“एवमस्तु ! जय श्वान ! जय श्वान–संस्कृति !! जय श्वान–सम्मेलन !!!”

—डा॰ जगदीश व्योम

Saturday, June 25, 2011

तीसरा हाथ ( कहानी )

-डॉ0 जगदीश व्योम

आज दो दिन बाद ‘बलू’ ने अलाव जलाया। इतवारी काका अनमने ढँग से अलाव के पास आकर बैठ गए। बलू ने चिलम में तमाखू रखी और अलाव में से आग रख कर चिलम को दोनों हाथों के बीच फँसाकर मुँह से सुलगाया। दो-तीन लम्बे कश लगाए और चिलम इतवारी काका की ओर बढ़ा दी। इतवारी काका ने दीर्घ निश्वास छोड़ते हुए चिलम ली और एक लम्बा कश लगाया। कश के साथ ही उन्हें खाँसी का दौरा-सा पड़ा और वे देर तक खँासते रहे। जब खाँसी थमी तो वे बलू से बोले, ”सरूपी का क्या हाल है?“
”हाल-चाल क्या...... सरूपी ने तो खटिया पकड़ ली है। जब से जै सिंह गया है, तब से उनकी तो दुनिया ही उजड़ गई।“ बलू ने भारी मन से बताया।
”बलू! जै सिंह की मौत ने मुझे भी तोड़ डाला है। सरूपी तो जवान बेटे की मौत को झेल रहा है। उससे अभागा और कौन होगा इस दुनिया में?.......... लेकिन मैं अपने को माफ नहीं कर पा रहा हूँ।
लैगुड़ा वाले कुँआ की घटना मेरी आँखों के आगे हर समय छायी रहती है। मुझे क्या पता था कि छोटी सी, हँसी-हँसी की बात का इतना भयंकर परिणाम होगा।“ -कहते-कहते इतवारी काका की आँखों में आँसू आ गए और गला रुँध गया। गमछे के छोर से आँसू पोंछे और नीचे को सिर झुकाए देर तक कुछ सोचते रहे।
बूढ़े बरगद ने आज पहली बार इतवारी काका को रोते हुए देखा। भारत-चीन युद्ध के समय इतवारी काका फौज में थे। वे बहादुरी के साथ लड़े थे। जब उनकी यूनिट के पैंतालीस जवान वीर-गति को प्राप्त हो गए; तब भी काका की आँखों में आँसू नहीं आए थे; उनकी पत्नी की मृत्यु हुई तो भी उनकी आँखें गीली नहीं हुईं, लेकिन आज आँसू हैं कि थमने का नाम ही नहीं ले रहे हैं।
इतवारी काका की दशा देख बूढ़े बरगद की भी दाढ़ी भीग गई है। उसकी भी आँखों से आँसू टपक-टपक कर उसकी दाढ़ी को गीला कर गए हैं।
बरी वाली चौपाल के एक-एक क्षण का साक्षात्-दर्शी, बूढ़ा बरगद ही तो है। आधी-आधी रात तक अलाव के पास पूरे गाँव की भीड़ लगी रहती थी। कहानियाँ, गीत, भजन, बतौनियाँ सब कुछ बरी वाली चौपाल पर सुनी-सुनाई जातीं। गाँव भर की एक-एक धड़कन की चर्चा इसी चौपाल पर होते हुए बूढ़े बरगद ने सुनी है। सब की आँखों से पूरे गाँव को देखता रहा है बूढ़ा बरगद।
तीन-चार माह पहले की ही तो बात है। चरवाहे लड़के एक सनसनीखेज दृश्य देखकर अपनी-अपनी गाय-भैंसों को गाँव की ओर भगा लाए थे। ‘बच्चू’ भागते-भागते जब चौपाल पर आया तो बुरी तरह हाँफ रहा था। इतवारी काका को देख वह इतना ही तो कह पाया था, ”काका....... ला.....स...... लै.......गुढ़ा..... कुँआ.... मँ..... लास......।“
”कहाँ लाश है?........ किसकी लाश है? पहले तू साँस ले ले, फिर बता आराम से, कि क्या बात है।“ - इतवारी काका ने बच्चू से कहा।
”काका, लैगुड़ा वाले कुँआ में लास पड़ी है। पता नहीं किसकी है।“ - बच्चू ने बात पूरी की।
कुँआ मंे लाश की चर्चा जंगल में लगी आग की तरह पूरे गाँव में फैल गई। जो सुनता, बरीवाली चौपाल की ओर दौड़ा चला आता। धीरे-धीरे पूरी चौपाल भर गई।
इतवारी काका ने प्रस्ताव रखा, ”चलो! चलकर देखा जाए, किसकी लाश है?......... है भी या चरवाहे लड़के वैसे ही डर गए हैं।“
हाथों में मशाल, टार्च, लाठी, डंडे लेकर पंद्रह-बीस आदमी रात में ही लैगुड़ा वाले कुएँ की ओर चल दिए। कुएँ की जगत पर खड़े होकर टार्च की रोशनी में देखा तो लाल साड़ी में सजी किसी औरत की लाश थी। कुएँ में पानी नहीं था। लाश सूखे मंे पड़ी थी। अंदर के किनारों की ओर जानवरों ने खोद-खोद कर खोहें बना रखीं थी और मिट्टी बीच कुएँ में जमा हो गई थी। इसी मिट्टी पर लाश पड़ी थी। मृतक महिला थी और उसकी उम्र पच्चीस-छब्बीस वर्ष के करीब लग रही थी। गोरे -गोरे हाथ, हरी-हरी चूड़ियाँ, सुहाग के सारे चिह्न। सबके सब दंग रह गए थे लाश को देखकर।
चौपाल पर पूरी रात बतकही होती रही थी। सब कयास लगा रहे थे, लाश के बारे में। पता नहीं कौन अभागिनि थी? किन भेड़ियों के हाथ चढ़ गई? सभी के मन मेें तरह-तरह के प्रश्न उठ रहे थे।
जो लोग देख कर आए थे वे मृतका के रंग, रूप, यौवन, शृंगार, वस्त्र आदि की चर्चा कर रहे थे। तरह-तरह की बातंे हो रहीं थीं। मृतका से चूँकि गाँव का कोई सम्बंध नहीं था इसलिए लोगों की संवेदना छिटक कर कहीं दूर होे गई थी और बीच-बीच में इसीलिए कुछ मजाकिया बातें भी छिड़ जातीं।
इतवारी काका बड़े मजाकिया और हँसोड़ प्रवृत्ति के रहे हैं। जै सिंह की पीठ पर हाथ फेरते हुए उन्होंने कहा- ”जै सिंह! अगर तुम उस औरत के हाथ में कंगन पहना आओ तो मैं समझूँ कि तुम वाकई बहादुर हो।“
”काका, मैं भी तुम्हारी तरह फौजी हूँ। एक क्या सैकड़ों लाशों के बीच में मैंने रातें बिताई हैं।......... फिर ये क्या बड़ी बात है?“ -जै सिंह ने गर्व से फूलते हुए कहा।
इतवारी काका लाल रँग के दो कंगन अपने पुराने बक्से से निकाल लाए। जाने कब से पड़े थे उनके बक्से में ये कंगन। कंगन दिखाते हुए बोले - ”जै सिंह अगर तुम ये कंगन उस औरत को पहना आओ तो मेरी सब भैंसों में से जो तुम्हें सबसे अच्छी लगे; वह तुम्हारी, सबके सामने मैं यह वचन दे रहा हूँ।“
अब तो प्रतिष्ठा की बात थी जै सिंह के लिए। जै सिंह ने भरी चौपाल पर बीड़ा उठा लिया कि वह पहना कर आएगा कंगन उस औरत के हाथों में।
”कंगन पहनाने की कुछ शर्तें हैं“ - इतवारी काका बोले।
”कहो काका! क्या-क्या शर्तें हैं? अब तो तय कर लिया है इस फौजी ने कि कंगन पहनाना है, बस!......... शर्त बोलो।“ जै सिंह ने कहा।
”शर्तें ये हैं- ठीक आधी रात को तुम्हें अकेले जाना होगा तुम्हारे साथ लाठी डंडा कुछ नहीं होगा। न ही टार्च या मशाल अथवा दियासलाई आदि कुछ भी नहीं।“ - काका ने कहा।
”ठीक है, आपकी सब शर्तें मंजूर। लेकिन काका! एक शर्त मेरी भी।“
”हाँ....... हाँ....... बोलो........ क्या शर्त है तुम्हारी?“ -इतवारी काका ने कहा।
”तम्बाखू की डिबिया ले जाऊँगा अपने साथ।“ जै सिंह ने हँसते हुए कहा।
”क्या उसे तम्बाकू खिलाओगे? अरे! ले ही जाना है तो रबड़ी ले जाओ, बेचारी को तम्बाकू का क्या खिलाओगे?“ -काका की इस बात पर सब खिलखिला कर हँस पड़े।
विचित्र शर्त लगी थी इतवारी काका और जै सिंह की। रात के ठीक बारह बजे और जै सिंह चल दिए लैगुड़ा वाले कुआँ की ओर। दोनों कंगन जै सिंह ने अपने कुर्ते की जेब में डाल दिए। रास्ते में एक दो सियार जै सिंह को मिले जो उन्हें देखकर भाग गए।
जै सिंह कुएँ की जगत पर पहुँच गया। एक पल उसने सोचा और मन पक्का करके कुएँ के अंदर उतर गया। चाँदनी रात में औरत का जिस्म साफ नजर आ रहा था।
जै सिंह अपने मन की लगाम कस कर पकड़े था कि कहीं उसका मन दहशत न खा जाए। कुएँ में उतरते ही वह लाश के पास उकडूँ बैठ गया, जेब से कंगन निकाल; लाश का एक हाथ पकड़ कर एक कंगन पहनाया ही था कि पीछे से एक हाथ अचानक उसके सामने आ गया। जै सिंह कंगन पहनाने में तल्लीन था, उसने हाथ को झटक दिया और बोला ”अभी तुझे भी पहनाता हूँ।“ दूसरा कंगन, दूसरे हाथ में पहनाने लगा तभी पीछे से फिर उसके सामने हाथ आ गया। जै सिंह ने पुनः उसे झटक दिया और बोला- ”तुझे तो अभी पहनाया है, अब इसे पहना दूँ।“
कंगन पहना कर जै सिंह कुएँ से बाहर निकल आया उसे अपनी सफलता पर गर्व हो रहा था। जै सिंह का ध्यान केवल औरत के हाथों में कंगन पहनाने पर था, और किसी ओर उसने देखा ही नहीं। चौपाल पर सब लोग प्रतीक्षा कर ही रहे थे कि जै सिंह ने आ कर एलान किया कि वह ‘कंगन पहना आया है।’
इतवारी काका बोले, ”सुबह चल कर देखेंगे। यदि कंगन पहनाए हैं तो जो भैंस तुम्हें अच्छी लगे; वह तुम्हारी“
”सुबह क्यों? अभी चल कर क्यों न देखें, सब पता चल जाएगा कि असलियत क्या है? क्या पता सुबह अंधेरे में जा कर कंगन पहना आए। इसलिए मेरी राय तो यह है कि अभी चलकर देखा जाए।“ - किसी ने कहा।
”ठीक है, अभी चला जाय“ -सभी सहमत हो गए। सब इकट्ठेे होकर लैगुड़ा में पहुँच गए। लोगांे ने देखा कि लाश के हाथों में कंगन हैं। अब तो जै सिंह शर्त जीत चुके थे।
इतवारी काका की सबसे अच्छी भैंस जै सिंह के घर आ गई।
जै सिंह के मन में रह-रह कर एक ही बात आती कि आखिर वह तीसरा हाथ था किसका? उस समय तो उसने ध्यान नहीं दिया पर बाद में उसे सब कुछ याद आ रहा था। कि एक हाथ में कंगन पहना कर उसे उसने अपनी गोद में रख लिया था, फिर वह तीसरा हाथ कहाँ से आ गया। इस बात को जै सिंह मन ही मन सोचता रहता। यह भी नहीं कि उसे भ्रम हुआ हो। उसे अच्छी तरह याद है कि उसने दो बार उस हाथ को पकड़ कर झिड़का भी था। ”आखिर किसका था वह तीसरा हाथ?“ - जै सिंह के अंतर मन मंे फितूर का बीज अंकुरित हो चुका था।
दिन-रात जै सिंह उसी की चिंता करने लगा। चूँकि उसने साक्षात अनुभव किया था इसलिए घटना को झुठलाया भी नहीं जा सकता था। जै सिंह इसी चिंता में बीमार पड़ गया। किसी को इस तथ्य कि कानों-कान खबर न थी।
दवा का कुछ असर न होता और धीरे-धीरे जैसिंह ने खाट पकड़ ली। अब तो उससे उठा बैठा भी न जाता। अपने मन का आभास फिर भी जै सिंह ने किसी को न होने दिया।
जै सिंह की हालत देखकर इतवारी काका घबरा गए थे। उन्हांेने तय किया कि जै सिंह को पूरी घटना बता देंगे, शायद उसके मन से भय निकल जाए और वह अच्छा हो जाय।
इतवारी काका जै सिंह के घर पहुँच गए। ”कहो जै सिंह कैसे हो?“ - काका ने यूँ ही पूछा।
”ठीक........ हूँ......... का......का.......“ जै सिंह ने किसी तरह बात पूरी की।
”जै सिंह! आज मैं तुम्हें एक खास बात बताने आया हूँ।“ -जै सिंह ने चारपाई पर लेटे-लेटे ही इतवारी काका की ओर देखा।
”बात ये है जै सिंह! कि तुम्हारे मन में कोई बात है, जिसे लेकर तुम बीमार पड़ गए हो। लेकिन तुम इतने बहादुर हो कि अब भी वह बात तुम्हारे होठों पर नहीं आई है। आज मैं बताता हूँ कि बात क्या है“ - इतवारी काका एक साथ पूरी बात कह गए।
जै सिंह ने इतवारी काका की ओर विस्मय से देखा।
”लैगुड़ा वाले कँुआ में जब तुम उस औरत को कंगन पहना रहे थे, तब एक तीसरा हाथ भी दो बार तुम्हारे सामने आया था परन्तु तुमने उसे झटक दिया। उस समय तो तुमने ध्यान नहीं दिया पर अब उस घटना को लेकर तुम परेशान हो रहे हो।.......... है न यही बात?“
इतवारी काका ने जै सिंह के मन की बात प्रकट कर दी।
”काका....तुम्हें... यह कैसे मालूम है?“ -जै सिंह ने आश्चर्य से कहा।
”अरे पगले! मैं ही तो था उस कुएँ के अंदर तेरे जाने के साथ ही मैं भी चल दिया था। तू घुमाव वाले रास्ते से गया था, मैं सीधा पहुँच गया और अंदर खोह में लेट गया था। मेरा इरादा था कि तुझे ऐसा डराऊँगा कि तू भी क्या याद करेगा। लेकिन तू तो बहुत बहादुर निकला।“ इतवारी काका ने रहस्य खोलते हुए कहा।
”जै सिंह, तुमने एक बात का ध्यान नहीं दिया; वह ये कि जब भी कभी मन मंे कोई भ्रम उपजे तो उसका निवारण तुरंत करना चाहिए। बात टाल देने पर परिणाम भयंकर हो जाता है। तुम अगर उसी समय उस तीसरे हाथ की ओर ध्यान दे लेते तो उसी समय रहस्य खुल जाता और तुम्हारे मन में यह फितूर पैदा ही न होता।“ - इतवारी काका ने गम्भीर होते हुए कहा।
जै सिंह के चेहरे पर पल भर को मुस्कान की रेखाएँ उभर आयीं। परन्तु अब स्थिति काबू से बाहर हो चुकी थी। जै सिंह की तबीयत में कुछ सुधार के आसार दिखे। परन्तु उसका शरीर जो टूटा तो फिर सँभल न सका। दो-तीन महीने मुश्किल से चल पाया।
बूढे़े बरगद की आँखों के आगे आज पूरा दृश्य उतर आया था। इतवारी काका तो केवल जै सिंह को डराना चाहते थे। उन्हें क्या पता था कि तीसरे हाथ के रहस्य की गुत्थी सुलझाते-सुलझाते जै सिंह इस दुनिया से ही चला जाएगा।
हवा का एक झोंका आया। बूढे़ बरगद की लटकती दाढ़ी धीरे-धीरे हिली। इतवारी काका को लगा मानों बूढ़ा बरगद उन से कह रहा हो -
”किसी की मौत पर कहकहे लगाना अच्छा नहीं होता। मजाक हमेशा सोच समझ कर करो। ऐसा मजाक किस काम का कि किसी के प्राण ही ले ले।“
इतवारी काका को लगा कि बूढ़े बरगद का चेहरा धीरे-धीरे गम्भीर होता जा रहा है और उनकी ओर हिकारत की दृष्टि से घूर रहा है तथा कह रहा है कि - ”तीसरे हाथ का रहस्य केवल तुम्हें मालूम था। लेकिन तुमने उसे समय पर स्पष्ट नहीं किया और किसी की मौत का कारण बना दिया.......... धिक्कार है तुम्हारे बुजुर्गपन पर।“
इतवारी काका आज बूढ़े बरगद से आँखें नहीं मिला पा रहे थे। उन्होंने जै सिंह के लिए तीसरे हाथ का रहस्य प्रकट किया था परन्तु अब वही रहस्य इतवारी काका को धीरे-धीरे अपने आगोश में समेटता जा रहा था।
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Thursday, May 10, 2007

शंका का अंकुर ( कहानी )

-डॉ0 जगदीश व्योम  

    फोन की घंटी काफी देर से बज रही थी पर कोई उठा नहीं रहा था। उठाता भी कौन क्वाटर घर पर कोई नहीं था। आज ही तो डिप्टी साहब का सामान उनके नए बँगले पर पहुँचा था।टेलीफोन अभी पुराने क्वाटर में ही लगा था।
    बीरु यह देखने के लिए कि कहीं कुछ सामान तो नहीं रह गया है‚ क्वाटर पर आया। तभी उसे फोन की घण्टी सुनाई दी। बीरु ने फोन उठाया—
“हलो........... हम बीरु बोल रहे हैं‚ साहब के घर सइ। आप कौन साहब हइ” “हलो.......... डिप्टी साहब से बात कराऔ।“—उधर से आबाज आयी।
    “डिप्टी साहब नहीं हैं। वह तउ आपन नए बँगला मा पहुँच गए हइ। आजु सुन्दर काण्ड को पाठु हुइ।आप अपनो नामु और काम बताइ देउ‚ हम साहब कउ बताइ दिअइ।“—बीरू ने बिना रुके पूरी सूचना देदी।
    “अरे भाई ! हम भोपाल से बोल रहे हैं। आप अपने डिप्टी साहब से कहो कि बहुत जरूरी बात है इसलिए तुरन्त हमसे बात करें”—उधर से आबाज आई।
    ठीक है साहबॐ हम अबहीं साहब कउ बताउत हइ‚ आप इन्तजार करउ.......”—बीरू ने कहा और फोन को मेज पर रखकर साहब को बुलाने चल दिया।
    सभी तन्मय होकर सुन्दर काण्ड का पाठ सुन रहे थे। तभी बीरू ने साहब के कान में कहा‚ “भोपाल सइ कौनो साहब को फून हइ आपके लएँ‚ और जरुरी बात करिबो चाहत है कोई साहब।”
    डिप्टी साहब पहले तो झल्लाए‚ फिर न जाने सोचकर फोन सुनने के लिए पुराने क्वाटर की और चल दिए............ फोन सुनकर डिप्टी साहब खड़े न रह सके। पास में पड़ी कुरसी पर बैठ गए।बीरू ने समझ लिया कि कुछ गड़बड़ है‚ इसलिए वह बाहर खड़े मिश्रा जी को बुला ले गया। डिप्टी साहब ने फोन का चोगा रखा और मिश्रा जी की ओर देखा। चेहरे के भावों से मिश्रा जी ने अन्तरमन के भावों को पढ़ लिया। तभी डिप्टी साहब के मुख से सिर्फ इतना निकला— “राजुल नहीं रहा ........ ”
राजूल डिप्टी साहब का इकलौता भतीजा था‚ जो उन्हीं के पास रह रहा था। पुत्र के समान प्यार करते थे डिप्टी साहब उसे। दो दिन पहले ही तो गया था राजुल भोपाल‚ अपनी माँ से मिलने के लिए। किसे पता था कि कूर काल ने उसे बुलावा भेज कर बुलवाया है।
    सुन्दर काण्ड पाठ सम्पन्न होने पर आरती के लिए डिप्टी साहब की प्रतीक्षा की जा रही थी। मिश्रा जी और बीरु के साथ आते डिप्टी साहब की चाल और चेहरे के भावों ने कुछ कह कर भी सब कुछ कह दिया। सब की प्रश्न सूचक निगाहें हैरान थीं कि आखिर क्या हो गया? डिप्टी साहब ने भरे कण्ठ से सिर्फ इतना कहा कि
    “आरती करो”.......... सब खडे. हो गए। आरती होने लगी। आरती के बाद डिप्टी साहब खड़े न खड़े न रह सके‚ बैठ गए।चारे ओर से भीड़ घिर आई।
फोन पर हुई बातें डिप्टी साहब के कानों में पिघले शीशे की भाँति पीड़ा पहुँचा रही थीं।
कैसे हुआ यह सब?....... पंडित जी ने पूछा।
“राजुल भोपाल गया था। वहाँ साइकिल से कहीं जा रहा था कि पीछे से आते ट्रक ने टक्कर मार दी।मौके पर ही प्राणान्त हो गया‚ राजुल का। फोन पर मिली जानकारी  डिप्टी साहब ने भरे कण्ठ से दी।
पूरी कॉलोनी के अधिकारी कर्मचारी परिवार सहित सुन्दर काण्ड पाठ में सम्मिलित हुए थे। पूरा घर भरा हुआ था। एक क्षण में पूरा माहौल शोक सभा में बदल गया। सभी को दुःख हो रहा था।
बँगले में प्रवेश का पहला दिन था। प्रवेश की बेला में शोक सभा का होना‚ कूर काल की कूरतम चाल नहीं तो और क्या था?.......... प्रोफेसर दीनानाथ कहने लगे‚ “भई जे बँगला अशुभ है‚ अब जा बात सिद्ध हुइ गई है। नांहि तो आजु प्रवेश के समय पै जे शोक सभा काहे हुइ गइ “—अन्य लोग भी हाँ हूँ करने लगे।
पंडित गनेशी लाल को प्रो।दीनानाथ की बात अच्छी नहीं लगी। वे सोचने लगे कि “जो होता है उसे तो कोई रोक नहीं सकता। इस तरह की बातों से व्यक्ति के मन में स्थान विशेष या घर विशेष के प्रति मन शंकालु हो जाता है। शांका का अंकुर व्यक्ति को धीरे–धीरे छीजता रहता है।”
बातो का राम रसरा छिड़ ही गया। सबके होंठों पर बस एक ही बात थी कि “बँगला अशुभ है।” जो आता घूम फिर कर इस बिन्दु पर बात अवश्य चलती। सुख के अवसरों पर भारतीय जनमानस प्रायः भोगवादी हो जाता है‚ वहीं दुःख के अवसर पर सब दार्शनिक हो उठते हैं। भूत‚ प्रेत और आडम्बर वाद ऐसे अवसरों पर ही मन के किसी कोने में बैठ जाया करते हैं। कुछ लोगों को ऐसे अवसरों पर ही भूत–प्रेत और टोना–टोटका आदि की बातो को बढ़वा देने का अवसर मिल पाता है। वे इसका पूरा फायदा उठाते हैं.।“—पंडित गनेशीलाल यही सोच रहे थे कि प्रोफेसर दीनानाथ ने जो राम रसरा छेड़ा है‚ उसे रोका जाना असम्भव है। होता तो वही है जो विघिना ने निर्धारित कर रखा है परन्तु हमारे मन का विश्वास डगमगा जाता है।
बड़े–बड़े अधिकारी‚ डाक्टर‚ वकील‚ प्रोफेसर आते और  डिप्टी साहब को ढ़ाढ़स बँधाते। परन्तु बातचीत के बीच बँगले की चर्चा अवश्य हाती।
     डिप्टी साहब बहुत दृढ़ निश्चय वाले थे। वे इन बातों में बिलकुल विश्वास नहीं करते थे। बँगले के साथ पहले से ही कुछ घटनाएँ जुड़ गई थीं। सिन्हा साहब को इसी बँगले में पैरालाइसिस हुआ था। वे स्थानान्तरण करवा कर चले गए थे। तीन साल पुर्व चौपड़ा साहब सिन्हा साहब के बाद आए। बँगले में आने के दो माह बाद ही उन्हें हार्ट अटैक  हुआ‚ किसी तरह बच गए। उसके बाद शर्मा जी इसी बँगले में आए। अच्छे खासे थे कि हार्ट अटैक पड़ा और इस  दुनिया से चल बसे। तब से पाच छः महीने हो गए बँगला खाली पड़ा था।डिप्टी साहब ने यह सब घटनाएँ पहले ही सुन रखी थीं। वे इन सबको संयोग मात्र मानते थें। फिर भी शंका का बीज मन की किसी अतल गहराई में छिपा बैठा था। बँगले में प्रवेश के समय सुन्दर काण्ड का पाठ इसी की परिणति थी।
आज की इस घटना ने उस बीज को अंकुरित होने के लिए धूप दी तो प्रो० दीनानाथ जैसे लोगों की चर्चा ने पानी के छोटे लगाने का काम किया। जिससे शंका का बीज अंकुरित हो ही उठी।
    वही  डिप्टी साहब‚ जो भूत–बाथा की बात पर कभी विश्वास नहीं करते थे‚ वे कहने लगे कि हो न हो कुछ बातें अवश्य बँगले से जुड़ी हैं। नहीं तो आज ही शिफ्ट किया और आज ही यह घटना हो गई। किसी ओझा या मौलवी से इसका अनुष्ठान कराना ही होगा।”
पंडित गनेशी लाल डिप्टी साहब के दुःख में समरत हो रहे थे। परन्तु इस घटना ने उन्हें डिप्टी साहब के मन में भूत–प्रेत की शंका का जो अंकुर आज अंकुरित  हो गया था गनेशी लाल एवं अन्य कतिपय लोगों को इस बात का सबसे बड़ा दुःख था।
इधर प्रो।दीनानाथ जैसे लोग अपनी विजय पर इस दुःख की बेला में भी अपनी जीत पर सन्तुष्ट थे कि चलो एक दृढ़ निश्चयी व्यक्ति डगमगाने में उन्हें सफलता तो मिली। पं।गनेशी लाल के मन मे राजुल के दुःख की रेखाए धुँधली पड़ने लगीं थी और समाज के इन विद्वनों और पथ–प्रर्दशकों के वैचारिक सोच तथा उनके दर्शन की बातें उनके मन को व्यथित किए जा रहीं थी। वे सोच रहे थे कि जिस दृढ़ निश्चयी मन को बड़े–बड़े तूफान नहीं हिला पाते उसे भावनात्मक दुःख की थोड़ी सी हवा ऐसा उड़ाती है कि चाहकर भी उसे रोका नहीं जा सकता।
    डिप्टी साहब उठकर घर के अन्दर चले गए और दुःखी पत्नी को ढ़ाढ़स बँधाते हुए कहने लगे‚ “शीला! आज मुझे भी लग रहा है कि यह बँगला अशुभ है। तुम्हारा क्या ख्याल है।”
    दुःख की भारी परत को चीर कर शीला की संवेदना ने उन्हें झकझोर डाला।अपने पति के विश्वास की नाव को डगमगाता देख‚ पत्नी ने पतवार सँभाल ली। आखिर दुःख के प्रलयंकारी जलप्लावन से विश्वास की नाव को तो बचाना ही होगा।शीला के अन्तरमन ने उससे कहा कि जब–जब पुरुषों का विश्वास डगमगाया है तब–तब नारियों के धैर्य ने विश्वास के डगमगाते कदमो को रोका है।
    शीला में न जाने कहाँ से साहस आ गया। वह बोली‚ “कोई स्थान अशुंभ नहीं होता। बेटा तो चलाही गया‚ विश्वास को मत जाने दीजिए। दुर्धटनाएँ सबके साथ होती हैं। कौन सा ऐसा घर है जहाँ मौत न हुई हो। फिर तो प्रत्येक घर अशुंभ है और फिर तीन साल पहले हमारी बेटी पिंकी का एक्सीडेण्ट हुआ था तब हम इस बँगले में नहीं थे। जो होना है वह होगा ही। बँगला पहले भी शुभ था‚ आज भी शुभ है और आगे भी शुभ रहेगा।”
    डिप्टी साहब को अपनी पत्नी शीला की बातें किसी पहुँचे हुए ऋषि की भाँति शीतलता प्रदान कर रहीं थीं। उनके विश्वास की डगमगाती नाव को पत्नी ने बड़कर सँभाल लिया था।
“मैं तो समझ रहा था कि तुम इस बँगले में‚ इस घटना के बाद रहना नहीं चाहोगी‚ लेकिन आज मैंने समझा कि तुम्हारा विश्वास तो हिमालय से भी ऊँचा है। तुम्हारे विश्वास को कोई तुफान नहीं डगमगा सकता। आज तुमने मेरे विश्वास को टूटने से बचा लिया।”—डिप्टी साहब ने पत्नी की आँखों के आँसू पोंछते हुए भरे कण्ठ से कहा।
    पं।गनेशीलाल ने बरामदे में खड़े–खड़े डिप्टी साहब और उनकी पत्नी की बातों को सुन लिया था। उनके चेहरे पर से विषाद की रेखाएँ मिटने लगीं। डिप्टी साहब रूप में पंडित गनेशी लाल को ‘मनु’ और ‘श्रद्धा’ के दर्शन हो रहे थे।
प्रोफेसर दीनानाथ डिप्टी साहब के बाहर आने से पहले ही वहाँ से खिसक गए‚ क्योंकि उन्होंने भी उनकी बातें सुन ली थीं।
    डिप्टी साहब के चेहरे पर विश्वास की कुन–कुनी धूप की चमक थी। शंका का अंकुर सूख कर झड़ चुका था। अंधविश्वास की आँधी उनके द्वार पर दस्तक देकर निराश हो चुकी थी और उल्टे पाँव लौट गई थी।
पं। गनेशी लाल को कामायनी की ये पंक्तियाँ डिप्टी साहब के रूप में साकार होती दिखाई दीं—
        “उठे स्वस्थ मनु ज्यों उठता है
            क्षितिज बीच अरुण दिए कांत।”