—डॉ0 जगदीश व्योम
पीलू सुबह से शाम तक बस्ती–बस्ती में घुम रहा था।जो भी जाति–भाई मिलता उससे वह सम्मेलन में आने का अनुरोध करता और आगे बढ़ जाता। पूरे उत्साह से लगा था पीलू सम्मेलन के आयोजन में। वह चाहता था कि उसके संयोजन में आयोजित यह सम्मेलन इतना सफल हो कि वर्षों तक इसे याद किया जाए। इसीलिए भूख–प्यास की चिंता किए बिना पीलू जुटा हुआ था। पूरी बस्ती के कुत्ते उसे पहचानते थे और उसका आदर करते थे। पीलू को देखकर बस्ती के कुत्ते उसके पास आ जाते‚ उसकी बात सुनते। घरों में बंद रहने वाले एक–दो बबुआ‚ कनकटे और पुँछकटे उस पर गुर्राते परन्तु पीलू का डील–डौल और उसकी ऊपर उठी पूँछ को देखकर चुपचाप सहम कर भाग जाते।
पीलू को इन कनकटे और पुँछकटे कुत्तों को देखकर‚ इन पर दया भी आती और क्रोध भी आता। आदमियों के तलुवे चाट–चाटकर इन कुत्तों ने अपनी संस्कृति ही छोड़ दी। ये वर्णशंकर हो गए। कान कटवा डाले‚ पूँछ कटवा डाली फिर भी खुश हैं। इन्हीं सब बातों को वह सम्मेलन में रखेगा। कुत्तों की संस्कृति और सभ्यता पर हमला हो रहा है‚ फिर वह चुप कैसे बैठे? पीलू यहीं चिंतन करता रहता।
लंबा–चौड़ा शरीर‚ हमेशा ऊपर उठी रहने वाली गोल छल्ले की तरह मुड़ी सुंदर और आकर्षक पूँछ‚ चौड़ा मुँह‚ पीला रंग‚ पीले रंग के बीच–बीच में सफेद फूल जैसे नन्हे–नन्हे धब्बे पीलू के व्यक्तित्व को बेहद आकर्षक बनाए हुए थे। बस्ती–भर की कुतियाँ उसकी एक झलक पाने को लालायित रहतीं। पीलू पूरी बस्ती का ध्यान रखता। यही कारण था कि उसके द्वारा आयोजित ‘कुत्ता–संस्कृति’ के गिरते स्तर पर आयोजित ‘श्वान–सम्मेलन’ में भारी भीड़ एकत्र होने की पूरी संभावना थी।
आखिर श्वान–सम्मेलन की तिथि आ ही गई। सुबह से ही तैयारियाँ चल रही थीं। दूर–दूर से देशी और खानदानी कुत्ते एकत्र हो रहे थे। बहुत समय के बाद इतना बड़ा कुत्तों का सम्मेलन आयोजित हो रहा था। चारों तरफ पीलू की प्रशंसा हो रही थी। पीलू सबकी आव-भगत कर रहा था। पीलू ने सम्मेलन में कुछ बाहर के देशी और विद्वान् कुत्तों को भी आमंत्रित किया था। उनका विशेष भाषण सम्मेलन में होना था।
सम्मेलन आरंभ हुआ। सबसे पहले पीलू ने मंच पर आकर पंचम स्वर में अपनी मातृभूमि को प्रणाम किया। इसके बाद समस्त आगंतुक श्वान बंधुओं का अभिवादन करते हुए उसने सबसे स्थान ग्रहण करने का अनुरोध किया। मंच पर बैठे विद्वान् श्वानों का परिचय कराते हुए पीलू ने कहा—“ये ‘हनी’ हैं। ये श्वान–संस्कृति के विशेषज्ञ हैं। ये दूसरे बंधु पिनपिनी हैं। इन्होंने श्वानों के वर्णशंकर होने के कारणों का गहराई से अध्ययन किया है। मैं इन सबका अभिनंदन करता हूँ, स्वागत करता हूँ।
“आज का सम्मेलन अब प्रारंभ होने जा रहा है। हमारे श्वान-समाज का अस्तित्व खतरे में है। आधुनिकता की चकाचौंध में आदमी इतना लिप्त हो गया है कि वह अपने देश से‚ अपने देश की वस्तुओं से‚ अपनी संस्कृति से‚ अपनी सभ्यता से दूर हटता जा रहा है। दूर ही नहीं बल्कि इनसे उसे घृणा हो गई है। हमें इससे मतलब नहीं है, वह जो चाहे करे‚ यह उसका अपना मामला है। परन्तु मनुष्य हमारे देशीपन से‚ हमारी संस्कृति और सभ्यता से भी चिढ़ने लगा है। हमारी संस्कृति और सभ्यता पर हमला हो रहा है, जो अपनी संस्कृति और सभ्यता को अपना रहा है‚ उससे आदमी घृणा कर रहा है। और जो वर्णशंकर हो जाए‚ चरित्र भ्रष्ट हो जाए‚ अपना रूप–स्वरूप बिगाड़ ले‚ उसे आदमी द्वारा अपनाया जा रहा है। इससे तो आगे चलकर हमारा वंश ही नष्ट–भ्रष्ट हो जाएगा। इन्हीं बिंदुओं पर विचार करने के उद्देश्य से यह श्वान–सम्मेलन आयोजित किया गया है। विद्वान् वक्ता इन बिंदुओं पर विचार करेंगे। सबसे पहले मैं ‘श्वान–संस्कृति’ के विशेषज्ञ ‘हनी’ को आमंत्रित कर रहा हूँ।”
हनी धीरे–धीरे मस्त चाल से चलते हुए मंच पर आए। ऊपर मुँह करके उन्होंने लंबी तान–सी छेड़ी मानो श्वान–संस्कृति के इष्टदेव का स्मरण कर रहे हों। इसके बाद समस्त देशी और खानदानी श्वानों को संबोधित करते हुए बोले—“साथियों ! हमारी संस्कृति उतनी ही प्रचीन है जितनी मानव संस्कृति। और एक माने में तो मानव–संस्कृति से हमारी संस्कृति अधिक पुरानी है। हमारे पूर्वजों ने जो सिद्धांत बना रखे थे‚ हम अपने सजातीय भाइयों पर भी भौंकते हैं। यह हमारा विद्रोही स्वरूप नहीं है‚ बल्कि हम नमकहलाली करते हैं। जिसका नमक खाते हैं‚ उसका हमेशा साथ देते हैं। महाभारत–काल में धर्मराज युधिष्ठर के साथ स्वर्ग जाने वाला हमारा ही पूर्वज था। रामायण काल में कुत्ते की शिकायत पर मनुष्य को सजा तक दी जाती थी। ऐसे भव्य उदाहरणों से युक्त है हमारी श्वान–संस्कृति।
“आज हमारी श्वान–संस्कृति पर खतरा मँडरा रहा है। कवि लोग भी अब हम पर उँगलियाँ उठाने लगे हैं—
‘श्वानों को मिलता दूध–वस्त्र
भूखे बच्चे अकुलाते हैं।’
कितनी बड़ी गाली दी है मनुष्य ने हमारी श्वान–संस्कृति को कब छीना है हमने बच्चों का हक? हम तो ऐसा सोच भी नहीं सकते..... लेकिन मनुष्य ने गलत भी नहीं कहा है। वे तथाकथित कुत्ते‚ जो हमारी कुत्ता जाति के लिए कलंक हैं‚ उन्होंने हमारी संस्कृति पर यह धब्बा लगवाया है।
“बहुत पहले हमारे समुदाय की कुछ कुतियाँ आधुनिकता की चकाचौंध में आकर श्वान समुदाय से विद्रोह करके भाग गई थीं। उन्होंने विभिन्न जानवरों के साथ संसर्ग करके वर्णशंकर बच्चे जन्मे। आज वे ही और उनके बच्चे मनुष्य के घरों में रहते हैं। मनुष्य ने चरित्र भ्रष्ट हो जाने पर उन्हे पुरस्कार दिया और आज वे कारों में घूमते हैं‚ दूध–मलाई खाते हैं‚ शैंपू से नहाते हैं। इन्हीं के कारण हम मनुष्यों से दूर होते जा रहे हैं। हमारी संस्कृति पर खतरा मँडराने लगा है। हमारी श्वान–संस्कृति पर खतरा इन्हीं वर्णशंकर श्वानों के कारण आया है। इस दिशा में गंभीर चिंतन की आवश्यकता है।
मेरा भाषण लंबा हो गया है। अब मैं अपना स्थान ग्रहण करता हूँ।”
पीलू मंच पर आया और उसने पिनपिनीजी को भाषण देने के लिए मंच पर आमंत्रित किया।
“मित्रो‚ मेरा नाम पिनपिनी है। मैंने श्वानों के वर्णशंकर होने की प्रक्रिया का अध्धयन किया है। कुछ चीजें तो आप जानते ही हैं। श्वानों के वर्णशंकर होने के पीछे क्या कारण रहे हैं और यह कितना घृणित कार्य है‚ वर्णशंकर होना। इस विषय में संक्षेप में कुछ बातें करूँगा।
“हमारी पूर्व–पीढ़ी की कुछ श्वान मादायें आदमी के बहकावे और लालच में आ गईं। श्वान–कुल की मर्यादा और परंपरा को उन कुतियों ने तिलांजलि दे दी। आदमी की संगति का ऐसा प्रभाव उन पर पड़ा कि वे आधुनिकता में आदमी से भी चार कदम आगे निकल गईं। आदमी ने उनकी पीठ थपथपा दी। फिर क्या‚ पथभ्रष्टता की हर एक सीमा उन कुतियों ने तोड़ डाली। व्यभिचार का ऐसा विद्रूप कि आदमी ने भी उनके कृत्यों को देखकर नाक–भौं सिकोड़ी होगी...... भेड़ियों‚ सियारों‚ भालुओं.... एवं अन्य ऐसे जानवरों से उन कुतियों ने संसर्ग किया और ऐसी औलाद पैदा की जो न भेड़िया थे न श्वान। विचित्र रूप था इनका। आदमी ने जब यह नस्ल देखी तो उसे भा गई और फिर तो ...... आदमी ने जबरन ऐसे घृणित कार्य श्वान मादाओं से कराने प्रारम्भ कर दिये।”
“आदमी की यदि ऐसी मानसिकता है‚ तो फिर उसने अपने समुदाय पर ऐसे प्रयोग क्यों किए?” श्रोताओं की भीड़ में से एक श्वान ने प्रश्न किया।
प्रत्येक आदमी की ऐसी मानसिकता नहीं है। ऐसे तो कुछ ही आदमी हैं जिनका मानसिकता सबसे अलग प्रकार होती है। ऐसे घृणित प्रयोग आदमी ने भी किए हैं। मैंने जानबूझकर इसे छोड़ दिया था। क्योंकि मुझे तो कहने में भी लाज लगती है। फिर भी‚ आपने प्रश्न किया है तो समाधान देना ही पड़ेगा ....... मनुष्य जाति में भी उनके दिमाग में कुछ पथभ्रष्ट महिलाएँ‚ जो अति आधुनिक बनना चाहती हैं‚ या उनके दिमाग में कुछ पागलपन का भूत सवार हो जाता है‚ ऐसे ही घृणित कार्य कर डालती हैं...... अभी हाल में एक समाचार सुर्खियों में रहा है कि “लास एंजिलस(कैलिफोर्नियाह) की उन्तीस वर्षीय कुमारी किटी मार्टिन ने 1987 में एक चिंपैजी से शारीरिक संबंध स्थापित किया और 28 अप्रैल 1988 को ऐसे बच्चे को जन्म दिया जो न आदमी है और न चिंपैजी। कुमारी किटी मार्टिन बड़े गर्व से उस वर्णशंकर बच्चे को पाल रही हैं।” [ खनन भारती पत्रिका‚ अप्रैल 1966 अंक‚ पृष्ट44] श्रोताओं की भीड़ में बैठी श्वान मादाएँ ..... हाय राम !.... च्च ... च्च.....च्च ...... च्च...... च्च ....... कहती हुई लाज के मारे अपने–अपने चेहरों को पंजों से ढँकने लगीं। पूरी सभा आश्चर्य से पिनपिनी साहब की ओर ताकने लगी।
“साथियो! मेरी बात सुनकर तुम्हें आश्चर्य हो रहा होगा। पर यह सच्ची घटना है। और भी ऐसी–ऐसी भयंकर घटनाएँ हैं जिन्हें तो यहाँ कहा ही नहीं जा सकता।
“हाँ ! तो वर्णशंकर श्वान सुतों की बात कर रहा था। इन विकृत चेहरे और शरीर वाले श्वानों को आदमी अब देशी वस्तुओं की उपेक्षा करता चला जा रहा है। उसे तो विकृत विचार‚ विकृत स्वरूप‚ विकृत संस्कार और विकृत संस्कृति अधिक पसंद आ रही है। इसलिए हम देशी श्वानों को बहुत सतर्क रहने की आवश्यता है। आदमी हमारी घोर उपेक्षा कर सकता है तो फिर हम देशी श्वान किस खेत की मूली है ! अंत में आप सब श्वान नरों और मादाओं से मैं कहना चाहता हूँ कि आप अति आधुनिकता की चकाचौंध में न फँसे। अपनी संस्कृति को बनाए रखें। उन कनकटे‚ पुँछकटे‚ टेढ़ पैरों वाले‚ टेढ़े मुँह वाले वर्णशंकर श्वानों को आदमी के तलुवे चाटने दें। ऐसे चरित्रहीन हमारी श्वान–संस्कृति के आदर्श कभी नहीं हो सकते। अब मैं अपना भाषण समाप्त कर रहा हूँ। एक बार सभी जोर से बोलें—‘श्वान–संस्कृति ज़िंदाबाद!’” सभी श्वानों ने पंचम स्वर में आलाप किया।
पीलू मंच पर आया—“भाइयो ! श्वान–सम्मेलन में आपने विद्वान् वक्ताओं के भाषण सुने। कुछ बातें तो नितांत आश्चर्यजनक सुनने को मिलीं। आदमी जब अपने चरित्र और संस्कृति को विद्रूप कर रहा है‚ तो फिर हम श्वान नर और मादाएँ भ्रष्ट हुईं हैं‚ इसी तरह आदमी जाति में भी कुछ ही ऐसी मानसिकता वाले हैं‚ इनसे बचकर रहें। ऐसे आदमी‚ आदमी रह नहीं पाए हैं और जानवर बन नहीं सकते। इनकी दशा पर हम श्वानों को भी दया ही आती है। इन्हें अपने हाल पर छोड़ दें।
“श्वान–सम्मेलन में आप सबने भाग लिया‚ इसके लिए आप सबको धन्यवाद। अगर इसकी रिपोर्ट छपी या फेसबुक पर प्काशित हुई तो आदमी चौंकेगा भी‚ बौखलाएगा भी‚ प्रसन्न भी होगा और हँसेगा भी। सब अपनी मानसिकता के अनुरूप इसका लक्ष्यार्थ‚ व्यंग्यार्थ और अभिधेयार्थ खोज ही लेंगे।”
“एवमस्तु ! जय श्वान ! जय श्वान–संस्कृति !! जय श्वान–सम्मेलन !!!”
—डा॰ जगदीश व्योम
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